प्रतापगढ़- अंग्रेजी हुकूमत और किसानों पर अत्याचार की गवाही देता नील फैक्ट्री का अवशेष।।

आज जिस नील से कपड़े चमकते है, कभी वो भारतीय किसानों के ऊपर जुल्म की वजह थे।।
 
प्रतापगढ़- अंग्रेजी हुकूमत और किसानों पर अत्याचार की गवाही देता नील फैक्ट्री का अवशेष।।

ग्लोबल भारत न्यूज़ नेटवर्क

प्रतापगढ़,17 मार्च:- सफे़द कपड़ों के लिए एक ज़माने में बेहद ज़रूरी समझा जाने वाला नील यानि मॉर्डन युग में अपनी प्रासंगकिता खोता जा रहा है, कुछ सालों पहले तक सफ़ेद कुरते-पायजामे, धोती, शर्ट और रुमाल में इसका इस्तेमाल होता था। लोग नदी के किनारे की मिट्टी जिसे रेह कहते थे, लाकर कपड़े धोते थे और नील डाल के चमका लेते थे। नील का प्रयोग चूने से होने वाली पुताई में भी होता है, जो कि एक साइकोलॉजिकल दृष्टि से भी मन को लुभाने वाले रंगों में से है।

प्रतापगढ़- अंग्रेजी हुकूमत और किसानों पर अत्याचार की गवाही देता नील फैक्ट्री का अवशेष।।

नील की फैक्ट्री के टूटे अवशेष किसानों पर हुए अत्याचार की गवाही दे रहे:- जनपद प्रतापगढ़ के मुख्यालय से 8 किमी. दूर जेठवारा रोड पर भुवालपुर डोमीपुर गाँव में नील की फैक्ट्री के टूटे अवशेष स्थित है। यह अवशेष हमारे ऊपर अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारो को दर्शा रहे है कि किस तरह हमारे देश के किसान मजबूर होकर अपने ही देश मे अपने ही खेत मे मजदूर बनकर रह गए थे।

प्रतापगढ़- अंग्रेजी हुकूमत और किसानों पर अत्याचार की गवाही देता नील फैक्ट्री का अवशेष।।

ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए चलाई थी तीन कठिया प्रथा जिसने किसानों की कमर तोड़ दी:- अंग्रेजों ने अपना व्यापार व मुनाफा बढ़ाने के लिए खेती में तीन कठिया प्रथा लागू की। इसके लिए बनाए गए नियम के मुताबिक प्रत्येक किसान को अपने 20 कट्ठा (एक बीघा) भूमि में से तीन कट्ठा नील की खेती करना अनिवार्य था। हरिनाथ सिंह ने बताया कि प्रति बीघा तीन कट्ठा जमीन में किसान को न सिर्फ नील उगाने की मजबूरी थी अपितु उसे काटकर कोठी तक अपने खर्च पर पहुंचाना पड़ता था। ऐसा न करने वाले किसान को जुर्माना एवं सजा का सामना करना पड़ता था जिसके लिए अंग्रेजों ने बाकायदा कचहरी की स्थापना कर उसमें आनरेरी मजिस्ट्रेट तैनात किया था।

सबसे पहले यह खेती बंगाल में आरंभ हुई:- नील की खेती सबसे पहले बंगाल में 1777 में शुरू हुई थी, लेकिन इसके साथ समस्या ये थी कि ये ज़मीन को बंजर कर देता था और इसके अलावा किसी और चीज़ की खेती होना बेहद मुश्किल हो जाता था। शायद यही कारण था कि अंग्रेज़ अपना देश छोड़कर भारत में मनमाने तरीके से इसे उगाया करते थे।

प्रतापगढ़- अंग्रेजी हुकूमत और किसानों पर अत्याचार की गवाही देता नील फैक्ट्री का अवशेष।।

नील उगाने वाले किसानों को लोन तो मिलता था, लेकिन ब्याज बेहद ज़्यादा होता था:- यूरोपीय देश नील की खेती में अग्रणी थे, अंग्रेज़ और ज़मींदार, भारतीय किसानों पर सिर्फ़ नील की खेती करने और उसे कौड़ियों के भाव उनसे खरीदने के लिए बहुत ज़ुल्म ढाते थे, ये ज़मींदार बाज़ार के भाव का केवल 2.5 प्रतिशत हिस्सा ही किसानों को देते थे। पूरे भारत में यही हाल था, सरकार के कानूनों ने भी इन ज़मींदारों के हक में ही फ़ैसले दिए।1833 में आए एक एक्ट ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी और उसके बाद ही नील क्रांति का जन्म हुआ था।

सबसे पहले बंगाल के किसानों ने उठाई थी आवाज:- सबसे पहले सन 1859-60 में बंगाल के किसानों ने इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाई, बंगाली लेखक दीनबन्धु मित्र ने नील दर्पण नाम से एक नाटक लिखा, जिस में उन्होंने अंग्रेजों की मनमानियों और शोषित किसानों का बड़ा ही मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया था। ये नाटक इतना प्रभावशाली था कि देखने वाली जनता, ज़ुल्म करते हुए अंग्रेज़ का रोल निभाने वाले कलाकार को पकड़ के मारने लगी। धीरे-धीरे ये आन्दोलन पूरे देश में फैला और 1866-68 में बिहार के चंपारण और दरभंगा के किसानों ने भी खुले तौर पर विरोध किया, बंगाल के किसानों द्वारा किया नील क्रांति आन्दोलन आज भी इतिहास में सबसे बड़े किसानी आन्दोलनों में से एक माना जाता है।।